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यं त्वा॒ जना॑सो अ॒भि सं॒चर॑न्ति॒ गाव॑ उ॒ष्णमि॑व व्र॒जं य॑विष्ठ । दू॒तो दे॒वाना॑मसि॒ मर्त्या॑नाम॒न्तर्म॒हाँश्च॑रसि रोच॒नेन॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ tvā janāso abhi saṁcaranti gāva uṣṇam iva vrajaṁ yaviṣṭha | dūto devānām asi martyānām antar mahām̐ś carasi rocanena ||

पद पाठ

यम् । त्वा॒ । जना॑सः । अ॒भि । स॒म्ऽचर॑न्ति । गावः॑ । उ॒ष्णम्ऽइ॑व । व्र॒जम् । य॒वि॒ष्ठ॒ । दू॒तः । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । मर्त्या॑नाम् । अ॒न्तः । म॒हान् । च॒र॒सि॒ । रो॒च॒नेन॑ ॥ १०.४.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:4» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:32» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यविष्ठ) हे युवतम-न उत्पन्न होनेवाला होने से बाल्य वार्ध‌‌‍‍क्य से रहित सद युवा परमात्मन् ! (जनासः) जन (यं त्वा-अभि सञ्चरन्ति) जिस तुझको सब ओर से सम्प्राप्त करते हुए अपने को तेरे अन्दर विराजमान समझते हैं (गावः-उष्णां व्रजम्-इव) जैसे कि गौएँ शीतपीड़ित होने पर उष्ण-गरम शीतनिवारक गोस्थान-गोशाला को सम्प्राप्त करती हैं, (देवानां मर्त्यानाम्) मुमुक्षुओं और साधारण जनों का (दूतः-असि) सन्मार्गप्रेरक दुःखनिवारक है, यतः (महान् रोचनेन-अन्तः-चरसि) तू महान् होता हुआ अपने प्रकाशमय तेज से सबके अन्दर व्याप्त है ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उत्पत्तिरहित होने से बाल्य और वार्धक्य से रहित सदा युवा है। जनमात्र उसकी शरण लेते हैं, जैसे शीतपीड़ित गौएँ गोशाला की। परमात्मा मुमुक्षु और साधारण जनों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, दुःख का निवारक है, वह प्रभावकारी तेज से सब में व्याप्त है, उसकी उपासना करनी चाहिये ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यविष्ठ) हे युवतम सदा युवन् “अनुत्पन्नत्वात्” बाल्यवार्द्धक्यरहित परमात्मन् ! (जनासः-यं त्वा-अभि सञ्चरन्ति) जना यं त्वामभितः सम्प्राप्नुवन्ति (गावः-उष्णां व्रजम्-इव) यथा गावः शीतार्ता उष्णं गोष्ठं गोस्थानं स्वगृहमभि संप्राप्नुवन्ति। (देवानां मर्त्यानाम्) मुमुक्षूणां साधारणजनानां च (दूतः-असि) प्रेरको दुःखनिवारकश्च त्वं भवसि, यतः (महान् रोचनेन-अन्तः-चरसि) महान् सन् स्वप्रकाशमयेन तेजसा सर्वेषामन्तः चरसि व्याप्नोषि ॥२॥